हमारे जीवन में विनम्रता के रिक्त स्थान को प्रायः अहंकार से ही भरा जाता है… दोनों परस्पर प्रबल शत्रु हैं और कभी भी एक साथ नहीं रह सकते…जब हम  किसी सफ़लता या उपलब्धि को अपनी व्यक्तिगत क्षमता मान बैठते हैं तो विनम्रता,चुपचाप हमारे हृदय से पलायन कर जाती और अहंकार अपने पांव पसारने लगता है…यहीं से परमात्मा हमारे पतन की पटकथा लिखने की शुरुआत करते हैं…यदि फलों से लदे वृक्ष की तरह,हम भी भगवान से कुछ पाकर,झुकना सीख जाएं तो मिथ्याभिमान से मुक्त रहते हुए दम्भ के झूठे विष से अपना जीवन सुरक्षित बना सकते… आज अपने प्रभु से जीवन को सदा ही विनम्र भाव से जीने की अलौकिक प्रार्थना के साथ…*

रामवर्मा आसबे

 

By नमोन्यूजनेशन

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