“सबसे प्रिय युग– कलियुग”

कलियुग का वर्तमान कुदृश्य :
यह कलियुग बहुत घोर है, यहां सर्वत्र धर्म का नाश हो रहा है, सामान्य मनुष्य की तो बात ही क्या यहां आचार्य तक माहापतित हो रहे है। देश परतंत्र है, शास्त्र रूपी दिव्य चक्षु से अधिकांश जन वंचित है, वर्णाश्रम का लोप हो रहा है। जीव-औषधियां, पेड़-पुष्प लुप्त होने से लेकर जल, वायु, आकाश, भूमि सब दूषित-कल्षित हो गए है।

स्त्रिया अमर्यादित स्वेच्छाचारिणी, मित्रता और डेट के नामपे शील बेचने वाली, तीक्ष्ण कर्कश वाणी वाली, और अपशब्दों की ही भाषा बोलने वाली हो गयी है। वो विवाह अधम जाती के निशाचरो से करके मुह काला करवाती है, नित्य गर्भ गिरवाती है, फिर तलाक देके रजोनिवृत्ति आने तक सहस्त्रो पुरुषों से समागम कर महावेश्या बन जाती है।

बाल विवाह को अब लोग कुरीति समझते है जबकि बच्चियों को बॉयफ्रेंड बनाने की छूट देते है। अब कोई पिता कन्यादान नही अपितु रजस्वला स्त्रीदान करके नरक का मार्ग प्रशस्त करते है और सभी पुरुष रजस्वला पति के दोष से सने है।

गुरुकुल अब कोई नही जाता, जो जाते है वे ब्रह्मचारी अब भिक्षा लेके गुरुकुल में नही रहते, वे म्लेच्छ वस्त्र पहनकर पिता के घर आराम से रहते-खाते है, वे गुरु के प्रति द्वेष रखते है और प्रायः नित्यकर्म का लोप कर देते है व दूषित सप्लाई जल से संध्योपासना करते है।
सब द्विज-शुद्र-संकरजाती के बच्चे एक साथ म्लेच्छ-स्कूली शिक्षा लेते है जो लाखो बार संशोधित होता रहता है। द्विज भी शौचाचार नही मानते और अछूतों को आलिंगन करते है। सर्वकालिक शास्त्र को संशोधित करने कहते है, वेद-निंदा, ईश-निंदा करते है, पुराणों को इतिहास नही मानते। अब शिक्षा सफल जीवन, सदाचरण, और सत्य ज्ञान लेने के लिए नही अपितु जीविका के लिए पढ़ते है। उनका लक्ष्य जीवन मे म्लेच्छ भूमि जाकर म्लेच्छ बनना ही होता है।

आर्य म्लेच्छो के जैसे महायंत्रो के उपयोग-उपभोग करते रहते है। तिथि, मुहूर्त पे आस्था नही रखते, विधिलोप करने से या शास्त्रावज्ञा करने पे प्रयाश्चित नही करते। अब यज्ञादि शुभकर्म कोई नही करता। मनुष्य जिह्वामात्र के लिए पशुबलि करते है। वृषभ का अब इस ट्रेक्टर युग मे कोई काम नही–लोग ऐसा सोचते है और गौवंश का मांस खाते है। गौमाता का दूध तब तक निकलते है जबतक रुधिर ना आ जाये और बछड़े को मारकर चर्म निकाल लेते है।

पृथ्वी पे नारायण स्वरूप ब्राह्मणो को दान-दक्षिणा अब कोई नही देता, विद्वान् ब्राह्मण को लोग अपमानित करते है। “ब्राह्मण क्या कोई भगवान् का एजेंट है”–ऐसा मूर्ख कुतर्क करते है। ब्राह्मण भी यजमान के कहे अनुसार विधि का लोप कर देते है, प्रमाद-अपवाद करते है। आधुनिकता के अंधानुकरण में बाकी जातियां ब्राह्मणो को सभी मनुष्यों के समान ही जानते है।

क्षत्रिय ब्राह्मणो को गालियां देता है, “ब्राह्मण तू छोटा होने से मेरे पितासमान कैसे हो गया!”—ऐसा कहकर हँसी-ठिठोली करते है, और अपने जड़ को नही पहचानते। वे गुरुकुल नही जाते, विवाह पूर्व ही नाममात्र के उपवीत होते है। स्त्रियों की उपासना करते है। निम्न सेवा-प्रकल्पों में जीवन खपा देते है व मलयुद्ध, कलारी, धनुर्विद्या का नित्य अभ्यास नही करते। अधर्म और कुशासन को सहना सिख जाते है और कुप्रशासन से डर खाते है व सदैव अस्त्र-शस्त्रों से विमुख रहते है।

वैश्य यज्ञोपविती धारण नही करते, वेद से विमुख है। परम्परा का लोप करते है, व्यवसाय बदलते है। दिन में तीन से पांच बार भोजन करते है। गौरक्षा, गौपालन नही करते। एकादशी व्रत नही करते। ‘धन का एकमात्र फल है– धर्म’, वे यह नही जानते। धनसंग्रह १०-१० पीढ़ियों तक का करते है, सुपात्र को दान नही करते और पुत्रो को म्लेच्छ-देश मे बसाते है। वे अवैदिक जैन पंथ का अनुसरण करते है। अंतिम समय म्लेच्छ दवाईयां खाकर, पुण्यक्षय कर अस्पताल में मर जाते है।

शुद्र परम्परा से मिले बाप-दादा का व्यवसाय नही करते, उस क्षेत्र में उन्नति नही करते। लोहार अब लोहे, छड़, स्टील का कारोबार करना नही चाहता; ठठेरा अब बर्तनो का विक्रय नही करना चाहता, नापित पार्लर खोलना नही चाहता; कुम्हार शिल्पी अपना कार्य बड़ा नही करना चाहते वे सब आरक्षण के बलपर ऊंची नौकरी करना चाहते है। और इनके छोड़े प्रकल्पो को विधर्मी अपना कर धनवान बन रहे है, जो अपने समुदाय में लगाते है और संगठित रहते है।

पांचवे वर्ण के सङ्कर जातियां उपवीत हो रही है। अधर्मी सरकार के द्वारा प्रश्रय पाकर पुजारी का काम करने की चाह रखते है। अपने कल्याण की कुंजी को जलाते है, उच्च वर्ण से मिश्रित होकर और भी निम्न महासंकर जातियों का निर्माण कर रहे है। धर्म से विमुख हो बौद्ध अनुयायी बन रहे है, भ्रष्ट मंत्रियों के कुत्सित चाल में फस रहे है। उच्च वर्णो को गालियाँ देकर अपने सदगति का मार्ग अवरोध कर रहे है।

“कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहि तोश विचार न शीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता।”

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यह सब देख कर तो कोई भी ज्ञानी मनुष्य कहेंगे कि अवश्य हमारा प्रारब्ध ठीक नही होगा जो हमें कलियुग में जन्म मिला। अरे इस कलियुग में कुछ भी ठीक नही, यहां रहकर तो नरक से अधिक पीड़ा होती है। पता नही और ४लाख वर्ष में क्या आएगा।

लेकिन क्या यह सत्य है? क्या कलियुग में कुछ भी अच्छा नही है? क्या इतनी वेदना आपको परमात्मा के निकट नही ले जाती?

आप सभी को आश्चर्य होगा कि सतयुग, त्रेता और द्वापर के मनुष्य भी कलियुग में जन्म पाने को मधुर स्वप्न समझते थे, वे लालायित रहते थे। मिथिलानरेश राजा निमि और नौ योगीश्वरों के संवाद का यह अंश श्रीमद्भागवतम् के ग्यारहवें स्कन्ध का है, आप सभी के समक्ष यह अंश रखता हूँ।

“कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञा: सारभागिन:।
यत्र सङ्कीर्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते॥
न ह्यत: परमो लाभो देहिनां भ्राम्यतामिह।
यतो विन्देत परमां शान्तिं नश्यति संसृति:॥
कृतादिषु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम्।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणा:।
क्व‍‍चित् क्व‍‍चिन्महाराज द्रविडेषु च भूरिश:॥
ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी।
कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी॥
ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर।
प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशया:॥”
[११, ५ | ३६-४०]

अनुवाद- कलियुग में केवल संकीर्तन से ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। इसलिए इस युग का गुण जानने वाले सारग्राही श्रेष्ठ पुरुष कलियुग की बड़ी प्रशंसा करते हैं, इससे बड़ा प्रेम करते हैं। देहाभिमानी जीव संसार चक्र में अनादि काल से भटक रहे हैं। उनके लिये भगवान की लीला, गुण और नाम के कीर्तन से बढ़कर और कोई परम लाभ नहीं है; क्योंकि इससे संसार में भटकना मिट जाता है और परम शान्ति का अनुभव होता है।

राजन्! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर की प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुग में हो; क्योंकि कलियुग में कहीं-कहीं भगवान नारायण के शरणागत उन्हीं के आश्रय में रहने वाले बहुत-से भक्त उत्पन्न होंगे।

महाराज विदेह! कलियुग में द्रविड़ देश में अधिक भक्त पाये जाते हैं; जहाँ ताम्रपपर्णी, कृतमाला, पयस्विनी, परम पवित्र कावेरी, महानदी और प्रतीची नाम की नदियाँ बहती हैं।
राजन्! जो मनुष्य इन नदियों का जल पीते हैं, प्रायः उनका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वे भगवान वासुदेव के भक्त हो जाते हैं।
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कलियुग में पाप की इतनी अधिकता है कि उससे बचने का भगवान्नम छोड़ और कोई उपाय नही है। यदि कोई सोच विचार कर भी पग-पग चलता है तो उससे भी कालप्रभाव से अनेक पाप बन जाते है।
“चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥”

परन्तु यहां नाम महिमा से मनुष्यों के सभी पाप मथ जाते है।
“कलि मल मथन नाम ममताहन।”

यहां जीव की आयु अधिक नही रहती, सभी दो अंक की आयु ही पाते है, ऐसे लघु जीवन मे पीड़ा भी अधिक होती है और जीवन स्वतः भगवान की महिमा सामने ला कर रख देता है। ऐसे अल्पायु जीवन मे महिमा जानकर भी जो संकीर्तन ना करे, वह तो निश्चय मूढात्मा ही है।
“सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं। कर ते डारि परस मनि देहीं॥”

भगवान्नम जप में नामापराध ना हो पावे, तब तो नाम महाराज की शक्ति की कोई सीमा नही। फिर तो उनके बलसे त्रिलोकी भी हस्तगत हो जाये।
‘एक बार दसऋत कहे, कोटि यज्ञ फल होय’

कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्॥
[श्रीमद्भागवतम् १२, ३ | ४१]

-परीक्षित! यों तो कलियुग दोषों का खजाना है परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान श्रीकृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती है, और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।

अतः सभी को इस काल की महिमा समझनी चाहिए और ऐसा सरल जीवन मिलने को अपना भाग्य ही जानना चाहिए। सकारात्मक गुणों को देखे तो भयंकर भुजङ्गविष की भी बहुत उपयोगिता है।

जय जय श्रीराम

By नमोन्यूजनेशन

देश सेवा हिच ईश्वर सेवा

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